स्त्री के अस्तित्व की कहानी

कौन हूँ मैं ?
क्या हूँ मैं ?
कहां हूँ मैं ? 

जल्दी आऊ तो मुसीबत
देर से आऊ तो भी मुसीबत 
ना आऊ तो सवाल 

हर -पल डर लगता है मुझसे 
मैं कहीं भी, कभी भी आ जाती हूँ 
मेरा ना आना भी डरा देता है 
आना भी दर्द देता है। 
मेरे आने से 
पहले ही तैयार रखना पड़ता है उन्हें खुद को 

आऊ तो बंदिशें उसपर
मंदिर मत जाओ
तुलसी को मत छुओ
आचार को मत छुओ
रसोई में मत जाओ
हर जगह रोक दिया जाता है उसे

क्या अस्तित्व है मेरा ?
कहने को तो लोग मुझे 
गंदा होना, रजोधर्म, 
मासिक, पीरियड के नाम से पुकारते हैं। 

हां, होती है कमजोर, वह इन दिनों में 
फिर भी वह दुर्गा, काली का रूप धारण किए
लगी रहती है घर के कामों में 
क्यों भगवान का वरदान अभिशाप बन गया स्त्री के लिए 

मेरे आने से टूटता है शरीर जैसे टूटती है शरीर की हड्डियां 
दर्द होता है पेट में, जैसे आधा हो गया हो शरीर
होता है पीठ दर्द, जैसे वर्षों का हो दर्द
शरीर से निकलती है रक्त की बूदें, जैसे बह रहा हो पानी

कही मैं किसी को दिख ना जाऊ 
हर तरह से छिपाया जाता है मुझे
अगर दिख भी जाऊ गलती से तो 
शर्म से सर नीचे हो जाया करता है

अखबार में लपेट कर काली पन्नी में लाया जाता है मुझे 
पैड बोल कर इशारे में दुकानदार को बताया जाता है मुझे
वो भद्दी-सी मुस्कान लिए कुछ पल ठहरकर अपराध-बोध करवाता है उसे

चार दिन तक उसे पहनने पड़ते हैं
लम्बे-लंम्बे कपड़े
ताकि छुपाया जा सके स्त्री होने का सच
बिस्तर पर करवटें लेते-लेते कट जाती है रातें 
दिन कट जाता है झूठ बोलते-बोलते 

जवाब देना होता है सबको
क्यों नहीं आई आज काम पर 
सारा काम क्यों नहीं किया
इतनी लेट क्यों आयी हो
आज चुप-चाप क्यों हो ? 

चेहरा पीला पड़ रहा है, थकी-थकी सी दिख रही हो 
चेहरे से रौनक ही गायब है, क्या बात है बताओ तो सही 
क्या बताऊ, कैसे बताऊ मैं तुम्हें 
बताना मना है यहां 

ये रूप-रंग मेरी कमजोरी की निशानी है
ये दर्द मेरे स्त्रीतत्व की निशानी है
जैसे अपराध लगता हो उसे अपना स्त्री होना
कभी जानो तो सही, स्त्री का होना

उसे ये दिन भी आम दिनों की तरह झूठी मुस्कान के साथ गुजारने होते हैं

नहीं कह सकती है वो तुमसे कि 
मैं आज आराम करूंगी 
क्योंकि उसे रजोधर्म हुआ है 
इसमें दर्द होता, शरीर की हड्डियां टूटती है पैरों में आग निकलती है
कमजोरी भी होती है, नहीं रह सकती है वो झूठी हंसी के साथ 
आराम चाहिए उसे 
जैसे इंसान को चाहिए होता है

हां, मैं औरतों के लिए काल हूँ  
पुरुषों के लिए वरदान हूँ मैं 
मेरे बिना हर औरत है अधूरी 
मेरे से ही उसका औरत होना

उसका स्त्रीतत्व खतरे में है क्योंकि 
कभी उसके स्त्रीतत्व को गाली दी जाती है 
तो कभी पवित्रता के नाम पर मंदिर जाने से रोका जाता है
अपनी परम्पराओं को बचाने के लिए उसे नगण्य किया जाता है उसके स्त्रीतत्व को परखा जाता है। 

हां स्त्री है वो 
वही स्त्री जो तुम्हें जन्म देती है 
नौ महीने गर्भ में रखती है 
अपने ममता भरे आँचल में तुम्हें सहेजती है
ताकि तुम गर्भाशय निकाल कर
उसे महीने भर अपने काम पर रख सको

कैसे ? हमारी शक्ति को हमारी कमजोरी बना देते हो तुम 
कैसे ? रात के अंधेरे में अकेला पाकर जग जाता है तुम्हारा पुरुषतत्व स्त्री कैसी भी हो, मोटी, छोटी, पतली, काली, गोरी, जवान, बच्ची या बूढ़ी  
टूट पड़ते हो तुम उस पर 
जैसे टूट पड़ता हो कोई शिकारी अपने शिकार पर 
तब उसके शरीर को महज एक मांस का टुकड़ा समझ कर नोचा जाता है 
और छोड़ दिया जाता है उसे गटर के कीड़े की तरह 
भूल जाते हो तुम बेटी से पत्नी बनना पत्नी से मां बनना क्या होता है

भूल जाते हो मां की लोरियों को 
दादी की कहानियों को 
बहन के साथ प्यार भरी लड़ाइयों को 
मां तेरे हाथ में जादू है कहने वाले 
मिटा देते हैं किसी के स्त्रीतत्व को 
रोने लगती है वो ममता जो कभी तेरे हँसने पर हस्ती थी 
रोने पर रोती थी

उसे अब दिल में ममता लिए जीना गवारा नहीं 
मिटा दिया है उसने अपना स्त्रीतत्व सारा 
जो उसे निर्बल बना दिया करता था
हां, वह अब स्त्री है जो  तोड़ देती है सभी बेड़ियों को
और पाती है अपने आपको बंधनमुक्त।


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