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Showing posts from October, 2018

लड़की होना गलत है क्या ?

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हर रीति रिवाज , या रस्म , हर कहीं लड़की होने पर सोचना पड़ जाता है। बीमार होने के कारण अंतिम समय में दादी को न देखने का गम बहुत था। मैंने सोचा कि तेरवी वाले दिन हवन में बैठकर दादी की आत्मा की शांति के लिए पार्थना करुगी। बीमार होने पर भी दिल्ली से यूपी आना मेरे लिए आसान नहीं था । हवन वाले दिन सबसे पहले नहा कर हवन की तैयारी करना। जब हवन शुरू हुआ तो मुझे ये बोल कर  हवन में बैठने से मना कर दिया । कि तुम देवी हो अभी तुम नहीं बैठ सकती। जब मैंने इसका विरोध किया और बोला कि सब तो बैठे हैं हवन में , तो मैं क्यों नहीं ? मुझे जबाब मिला ,कि तुम पोती हो इसलिय । चिंता मत करो बेटी । शादी के बाद तुम बैठ सकती हो ।   तुम देवी हो अभी । मैने फिर कहा मेरे भाई भी पोते हैं तो वो क्यों बैठे हैं। ? अरे बेटी वो लड़के हैं कुल दिपक हैं। खानदान के। जब बड़ी हो जाओगी समझ जाओगी। फिर मुझे सब चुप्प  कराने लगे । कितना बोलती है। पूर्वजो के समय  से ऐसा ही होता आया हमारे यहां। उस समय मेरे अरमानों पर पानी फिर गया । अपने आप भी गुस्सा आ रहा था कि  आखिर हमारे साथ ही क्यों ? अगर दिल्ली में होती तो जींद करके बैठ जाती।

मंटो एक बदनाम लेखक ( पुस्तक का रीव्यू)

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मंटो एक बदनाम लेखक मंटो एक बदनाम लेखक विनोद भट्ट ध्दारा लिखी पुस्तक में । मंटो के जीवन में चले संघर्ष को पुस्तक में  बहुत सरल भाषा में बताया गया है। कि किस तरह मंटो की कहानियों पर अश्लीलता का जुर्माना लगता रहता था ।तब भी मंटो ने हार न मान कर वैश्यों पर और समाज में चल रही परिस्थितियों को कहानियों के माध्यम से उजागर करता रहा। ,,  उसे अश्लील लेखक की उपाधि दी गईं थी। इसके जितने पाठक नहीं उतने दुश्मन थे। जो कुछ थे ,वो समाज के डर से बाहर नहीं आ सकते थे ।   इस कारण था मंटो का समाज में  जो घट रहा है उसे लिखना। जो देखना नहीं चाहता उसे दिखाना। किताब के कुछ दिलचस्प लाइन अगर आप मेरी कहानियां बर्दाश्त नहीं कर सकते तो मान लीजिए कि यह जमाना ना काबिले बर्दाश्त है सहनशक्ति के बाहर का, मेरे लेखन शैली में कोई बनावट नहीं है मुझे पब्लीसिटी स्टेटस पसंद नहीं ह मंटो की कुछ पंक्तियां याद आती हैं जिससे पढ़ कर लगता है कि मंटो एक ऐसा लेखक था जो अपने कहानियों के माध्यम से समाज को आईना दिखाता रहा। मंटो अपनी कहानियां  में लिखी जिस पर लंबे समय तक विवाद होता रहा 1942 में लिखी कहानी काली सलवार ने उसको साह

आप आज भी जिंदा हो दादी मुझ में मेरी यादों में ।

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स्मृति की दो राहों से........ उनकी यादे हमेशा उनके होने का एहसास कराती है। दादी शब्द प्यार और  लाड़  का प्रतीक है। दादी नाम लेते ही मुझे उनकी कहानियाँ याद आ जाती हैं और वह हर एक कहानीे  से मिलने वाली सीख मुझे कभी बताना नहीं भूलती थीं । उनकी ज्यादातर कहानियां सच्चाई और सम्मान पर आधारित रहती थीं। बोलती थी कि कम खाओ लेकिन इज़्ज़त का ।  दादा जी तो पहले ही चले गए , लेकिन दादी ने कभी उनकी कमी महसूस नहीं होने दी। पापा कभी मुझे डांटते तो उन्हें अम्मा से शिकायत करने की धमकी देती। जब गांव से फोन आता तो पापा की शिकायत के अम्बार लगा देती। फिर क्या था एक छोटे बच्चे की तरह बोलते मईयो ये मेरी बात नहीं मानती। अम्मा बोलती मेरी बच्ची को हाथ मत लगाइयो नहीं तो मेरा मरा मुँह देखेगा। पापा एक अच्छे बच्चे की तरह कुछ न बोलते। बचपन से लड़कों  के कपड़े पहने थे। जब समय के साथ बड़ी हुई तो मुझे एक सीधी - साधी लड़की बनने के लिए सूट पहने को बोला गया,लेकिन मैं हूँ तो अपनी दादी की तरह एकदम जिद्दी कहाँ मानने वाली थी। मुझे बोला गया कि इस बार तू गांव सूट पहन कर जाएगी नहीं तो नहीं जाएगी। पापा करीब दो घन्टे मुझे समझाते र