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मैं चुप हूँ

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मैं चुप हूँ  क्योंकि  मुझे चुप रहना सिखाया गया है  मैं चुप हूँ  क्योंकि  मुझे इज्जत बचानी सिखाई  गई है।  मैं चुप हूँ  क्योंकि मुझे  अपनी सीमा में रहना सिखाया गया है  मैं चुप हूँ  क्योंकि मुझे रिश्तें निभाने सिखाए गए हैं। मैं चुप हूँ क्योंकि मुझे सहना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ  क्योंकि मेरे जिस्म को ही  मेरी आबरू बनाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे कमजोर ,बेसहारा , नाजुक , भोली -भाली व बेचारी  बताया  गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि मुझे  पुरूष के अस्तित्व में रहना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि   मुझे  पुरूष से डरना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे आज्ञा का पालन करना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे रोना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे झुकना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि मुझे  एक अच्छी लड़की बनना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि मुझे   दान किया जाता है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे संस्कारी बनाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि   मुझे सिर्फ प्रेम करना सिखाया गया है।

क्या औरत ही औरत की दुश्मन होती है?

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क्या औरत  ही  औरत की दुश्मन होती है ?  अक्सर लोग बोलते हैं कि  औरत  ही औरत  की दुश्मन होती है, तथा वो ही औरतों  का सबसे ज्यादा शोषण करती है  एक नजर में ये ठीक हो सकता है जैसे हम किसी समस्या को दूर से देखते हुए फैसला कर लेते हैं कि गलती फलाने की होगी! क्योंकि बहु का शोषण तो सबसे  ज़्यादा सास ही करती है वहीं उससे जरूरत से ज़्यादा काम कराती है, तथा मायके से दहेज लाने का जोर भी वहीं  डालती है। उसे ही तो, बहु  से गहने चाहिए होते हैं। कुछ मामलों में तो सास और ननद बहु को जला भी देती हैं। ज़्यादातर मामलों में तो घर की महिला की लड़ाई एक औरत से ही होती है। घरेलू कामों की वजह से अक्सर महिलाएं एक दूसरे  की दुश्मन बन जाती है लेकिन ये भी घरों में बहु ,बेटियों के  साथ भेदभाव के कारण होता है किसी को गोरा होने पर, अच्छे घर से सम्बंध रखने व  बेटा पैदा होने पर ज्यादा तबज्जो  दी जाती है। सब के साथ समान व्यवहार न करने पर इस तरह का व्यवहार सामान्य है। पुरुषों के भी अपने काम की जगहों पर अपने मित्रों से मनमुटाव हो जाते है। फर्क इतना है कि घर के मनमुटाव सब को दिखते हैं लेकिन पुरुषों के व्यवहार से किसी

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अपनी मां के स्तनों को देख कर पुरुषों में कामवासना क्यों जाग्रत नहीं होती है ?

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अपनी मां के स्तनों को देख कर पुरुषों  में कामवासना क्यों  जाग्रत  नहीं होती है ?  मैंने तो शादी की रस्म में भी देखा है  कि बारात के जाते समय दुल्हा अपने माँ के स्तनों से दूध पीने की रस्म करता है। मेरी दादी तो  70 की उम्र में पापा के सामने नहा भी लिया करती थी। कभी - कभी पापा खुद उन्हें अच्छे से नेहा दिया करते थे। ऐसा ही मेरी ताई जी के साथ वो बिना ब्रा के रहती है  कोई उन्हें कुछ नहीं बोलता ।  शायद बढ़ती उम्र में औरतों की यौनिकता के कम होने के कारण उन्हें आजादी मिल जाती है। बहु से सास बनते  - बनते  औरतों का पर्दा हटने के साथ ज़्यादातर पाबंदियां खत्म हो  जाती है   साथ ही उनकी युवा अवस्था  भी समाप्त हो जाती है।  जबकि पुरुष समाज  सबसे ज्यादा  ध्यान महिला के स्तनों को ढकने  की ओर देता है। जैसे स्तन नहीं हो गए । कोई बम हो गए । जो पुरूष के देखने भर से वो लालायित हो उठेगा।मानो उसके शरीर के बाकी हिस्सों की तरह ये खास है ये खास नहीं है इसे खास बनाया गया है उनके स्तनों को उनकी इज्जत , शर्म में परिवर्तित कर दिया गया है। ब्रा की स्टेप दिखने,  सूट  व ब्लाउज का गला गहरा  होने पर भर से  उस महि

लज्जा ( तस्लीमा नसरीन) बुक रिव्यू

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लज्जा बुक रिव्यू (तस्लीमा नसरीन)  पुस्तक प्रासंगिकता -  लज्जा तसलीमा नसरीन द्वारा रचित एक बंगला उपन्यास है। यह उपन्यास पहली बार 1993 में प्रकाशित हुआ था यह पाँचवाँ उपन्यास सांप्रदायिक उन्माद के नृशंस रूप को रेखांकित करता है। कट्टरपन्थी मुसलमानों के विरोध के कारण बांग्लादेश में लगभग छः महीने के बाद ही इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस अवधि में इसकी लगभग पचास हजार प्रतियाँ बिक चुकी थी। धार्मिक कट्टरपन को उसकी पूरी बर्बरता से सामने लाने के कारण उन्हें इस्लाम की छवी को नुकसान पहुँचाने वाला बताकर उनके खिलाफ मौलवियों द्वारा सज़ा-ए-मौत के फतवे जारी किए गए। बाँग्लादेश की सरकार ने भी उन्हें देश निकाला दे दिया। जिसके बाद उन्हें भारत तथा अन्य देशों में शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। शीर्षक – लज्जा का अर्थ कई मायनों में अलग – अलग है जिसे भारतीय समाज में  शर्म, लाज, हया, शर्मिदगी इत्यादि के नाम से जाना जाता है। लेकिन इन शब्दों को अलग – अलग परिस्थितियों में बोला जाता है, उसी प्रकार तसलीमा नसरीन ने लज्जा शब्द का प्रयोग बंग्लादेश के दंगों में हिन्दूओं पर हो रहे अत्याचारों व महिलाओं के साथ हो रहे बलात्कारों क

स्त्री के अस्तित्व की कहानी

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कौन हूँ मैं ? क्या हूँ मैं ? कहां हूँ मैं ?  जल्दी आऊ तो मुसीबत देर से आऊ तो भी मुसीबत  ना आऊ तो सवाल  हर -पल डर लगता है मुझसे  मैं कहीं भी, कभी भी आ जाती हूँ  मेरा ना आना भी डरा देता है  आना भी दर्द देता है।  मेरे आने से  पहले ही तैयार रखना पड़ता है उन्हें खुद को  आऊ तो बंदिशें उसपर मंदिर मत जाओ तुलसी को मत छुओ आचार को मत छुओ रसोई में मत जाओ हर जगह रोक दिया जाता है उसे क्या अस्तित्व है मेरा ? कहने को तो लोग मुझे  गंदा होना, रजोधर्म,  मासिक, पीरियड के नाम से पुकारते हैं।  हां, होती है कमजोर, वह इन दिनों में  फिर भी वह दुर्गा, काली का रूप धारण किए लगी रहती है घर के कामों में  क्यों भगवान का वरदान अभिशाप बन गया स्त्री के लिए  मेरे आने से टूटता है शरीर जैसे टूटती है शरीर की हड्डियां  दर्द होता है पेट में, जैसे आधा हो गया हो शरीर होता है पीठ दर्द, जैसे वर्षों का हो दर्द शरीर से निकलती है रक्त की बूदें, जैसे बह रहा हो पानी कही मैं किसी को दिख ना जाऊ  हर तरह से छिपाया जाता है मुझे अगर दिख भी जाऊ गलती से तो  शर्म से सर नीचे हो जाया करता है अखबार में लपेट कर काली पन्नी में लाया जाता

क्योंकि मैं चुप हूँ

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मैं चुप हूँ  क्योंकि  मुझे चुप रहना सिखाया गया है  मैं चुप हूँ  क्योंकि  मुझे इज्जत बचानी सिखाई  गई है।  मैं चुप हूँ  क्योंकि मुझे  अपनी सीमा में रहना सिखाया गया है  मैं चुप हूँ  क्योंकि मुझे रिश्तें निभाने सिखाए गए हैं। मैं चुप हूँ क्योंकि मुझे सहना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ  क्योंकि मेरे जिस्म को ही  मेरी आबरू बनाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे कमजोर ,बेसहारा , नाजुक , भोली -भाली व बेचारी  बताया  गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि मुझे  पुरूष के अस्तित्व में रहना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि   मुझे  पुरूष से डरना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे आज्ञा का पालन करना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे रोना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे झुकना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि मुझे  एक अच्छी लड़की बनना सिखाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि मुझे   दान किया जाता है।  मैं चुप हूँ क्योंकि  मुझे संस्कारी बनाया गया है।  मैं चुप हूँ क्योंकि   मुझे सिर्फ प्रेम करना सिखाया गया है।