औरतों को कोसने से पहले पितृसत्ता को समझ लें।


(मेरी दोस्त की पोस्ट जा जबाव )

औरतों को कोसने  से पहले आप को पितृसत्ता और मनुवाद को समझना होगा ।
कि कैसे पितृसत्ता ने औरतों को कमजोर , कोमल , नाजुक बना कर रख दिया हैं।
उसी तरह से इनकी परवरिश की गयी हैं। रात को देर तक ना निकलना , पढ़ाई से ज्यादा घर के कामों में लगे रहना , देह को इज्जत से जोड़ना , किसी लड़के से बात करने पर बदनाम होने का डर । घर के मर्दों के खाना खाने के बाद बचा खुचा खाना।
खाने से लेकर क्या पहना है , क्या खाना हैं क्या करना , कहां जाना है ,कब हँसना , कब बोलना , कितना पढ़ना,  दुबली पतली रहो ,किस से शादी करनी  ये सभी फैसले घर के मर्द लेते ।
स्त्री को सुंदर होना ही है चाहे पुरुष काला कुरूप कैसा भी हो ।
औरत खुशी - खुशी उनकी आज्ञा का पालन करती हैं । अपना फर्ज समझते हुए ।
आज्ञा का पालन होगा तो अच्छी बेटी , बहू बन जाओगें आज्ञा का पालन नहीं करोगी तो बिगड़ी, कुलक्षणि , रंडी ,बेहा ,चुड़ैल , छिनाल इत्यादि नामों से पुरुष समाज नवाजता  हैं।
औरत को सस्ती शिक्षा , बेकार खान - पान
वहीं पुरुष को बेहतर से बेहतर शिक्षा , अच्छे से अच्छा खान - पान देने की पूरी कोशिश की जाती हैं।
इस कारण हमारे देश में 13 बच्चों में 10 लड़कियां कुपोषण से ग्रस्त होती हैं।
भारत में 80 प्रतिशत से अधिक गर्भवती महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं।
(न्यूज
1992-1993 और 2005-2006 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के विश्लेषण नो फीमेल डिसवांटेज इन एंथ्रोपोमेट्रिक स्टेटस अमंग चिल्ड्रन में भी यही कहा गया है कि पिछले दो दशकों में 0-59 महीने के लड़के लड़कियों की तुलना में कमजोर पाए गए हैं. लेकिन यह विश्लेषण यह नहीं बताता कि पांच साल की उम्र के बाद यह स्थिति उलट कैसे जाती है. 2015-16 का नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे यह क्यों कहता है कि एडल्ट औरतों में खून की भयंकर कमी होती है और उनका बीएमआई आदमियों के मुकाबले बहुत कम होता है. अब इस उलट स्थिति का खुलासा हुआ है. क्योंकि लड़कियां कम उम्र से चूल्हे चौके में फंसा दी जाती हैं, इसलिए साथ खाना खाने का चलन खत्म होने लगता है. फैमिली के सभी लोग साथ बैठकर खाएं तो इस कुपोषण की समस्या का हल हो सकता है. लेकिन एक बात और ध्यान देने की है.
मतलब प्रॉडक्ट नहीं, तो आपकी कोई कद्र भी नहीं. प्रॉडक्ट हो तो आपकी वैल्यू है. प्रॉडक्ट भी कैसा- बेटा है तो ज्यादा देखभाल और पूछ. यह हमारे घरों में आम है. बेटों पर हम वारि-वारि जाते हैं. बेटियों को नजरंदाज करते रहते हैं. यही बेटियां मायके में भी बाद में न्यूट्रिशन पाती हैं, ससुराल में भी. यह भी कम हैरान करने वाली बात नहीं कि पैदाइश के समय लड़कियां, लड़कों से ज्यादा हेल्थी होती हैं. रैपिड सर्वे ऑफ चिल्ड्रन खुद कहता है कि पांच साल से कम उम्र की लड़कियां लड़कों के मुकाबले हेल्थी होती हैं.)
जब बराबरी की बात होती हैं तो संसाधन भी बराबरी में मिलने चाहिए।
जिन्हें संसाधन बराबरी के  मिले हैं वो आज देश के सामने हैं। जैसे गीता फोगट ,मैरी कॉम, पी.टी उषा, सानिया मिर्ज़ा, साइना नेहवाल , साक्षी मलिक , पी. वी सिंधु , झूलन गोस्वामी,  इत्यादि । ये ऐसे नाम है जो गरिमा जी ने लिखा है  वो सभी कार्य ये महिलाएं कर सकती हैं।
जहां आपने बोला कि कुछ लड़कियां चिल्ला - चिल्ला कर कहती हैं कि वी आर  इक्वल टू बॉयज
जरा ये बताएं कि कितनी लड़कियां चिल्लाती ?
अगर कुछ लड़कियां भी चिल्लाने लगे न
इतनी वारदातें न होती । कमी तो यही है हमारे समाज कि  लड़कियों को बोलना नहीं
उन्हें केवल सहना सिखाया जाता हैं।
(1) गांवो की लड़कियों से मिले वो पशुओं का, घर का, खेतों का काम बेहरत तरीके से करती हैं। और सिलेंडर उठाना तो बहुत मामूली हैं उनके लिए , हां कुछ शहर की लड़कियां भी ये काम आराम से कर सकती हैं जिनका खान - पान अच्छा हो । जो पूरी तरह स्वस्थ हो ।
(2 )  लड़के हो या लड़कियां  रात को 2 बजे घर से निकलना दोनों के लिए  असुरक्षित होगा । ये लड़की होने पर ऐसा ना करना कारण नहीं हो सकता वो सुरक्षा व्यवस्था पर है कि वो कैसी हैं ।
एक अच्छी सुरक्षा व्यवस्था में लड़की भी सुरक्षित महसूस करेगी और लड़का भी ।
उदाहरण - के तौर पर भाई की जॉब सरिता विहार थी तो वो सुरक्षित थे।  लेकिन जब उनकी जॉब बदरपुर के पास लगी तो कुछ दिन बाद ही भाई ने जॉब छोड़ दी  कारण रात के समय रास्ता सुरक्षित ना  था ना कोई  परिवहन वहां मिलता था बड़े पापा भाई को लेने जाते थे।
(3) बिना बचाओं बचाओं खुद की मदद तो लड़के भी नहीं कर सकते । दिन हो या रात हो । अकेली  लड़की हो या लड़का चोरों की पूरी टीम के आगे हर कोई बेबस नजर आता हैं। मैंने दैनिक जागरण में चार महीने इंटरशिप की थी उस दौरान क्राइम न्यूज़ लिखने का मौका मिला । तब पता चला कि वारदातें  सब के साथ होती हैं लड़की हो या लड़का।  हां लड़कियों के साथ कुछ ज्यादा होती । क्योंकि लड़कियां कमजोर होती हैं इस  मानसिकता से  वो भी जकड़े हुए होते हैं।
(4 ) बिना इंतजार किये गुंडागर्दी से निपटने की कोशिश तो  हर कोई करना चाहता हैं। इसमें जेंडर कहां से आ गया । आ बैल मुझे मार जैसी परिस्थितियों को कोई भी पैदा नहीं करना चाहता।
या वो  गुंडों से  निपटने के लिए पब्लिक की मदद मांगेगा / मांगेगी या छुटकारा पाने के लिए  वहां से भाग जाएगा/ जाएगी ।

कितनी लड़कियां जुबान की धार  चला सकती हैं?
अगर लड़कियों की जुबान की धार चलती तो वो कभी डरी सहमी बेबस नजर नहीं आती ।  ना ही कभी किसी मनचले के छेड़ने पर अपना रास्ता बदलती । क्योंकि उन्हें चुप रहना सिखाया जाता हैं बचपन से ? , अगर वो बोलीगी तो समाज में उनका परिवार बदनाम हो जाएगा । फिर उस परिवार की लड़की से शादी कौन करेगा । इसलिए लड़की का चुप रहना बेहतर है क्योंकि बदनाम तो केवल लड़की होती हैं गलती किसी की भी हो ।
कितने लड़कियों के परिवार पुलिस के पास जाएंगे। एफआईआर कराने ?  क्या शर्त हैं कि वो उस लड़की का स्कूल , कॉलेज ना छुड़ायेंगे। इसलिए मज़बूरन उन्हें रास्ता बदलना पड़ता हैं।लड़कियां गलत को अपनी किस्मत मान कर कोसती रहती हैं। कि मुझे ही क्यों लड़की बनाया ।  सेल्फ रिस्पेक्ट सब की होती हैं उन्हें भी ईट का जबाव पथर से देना आता हैं अगर उनके परिवार की इज्ज़त  का सवाल ना हो तो।
इसलिए लड़कियों की चुप्पी को उनकी कमजोरी ना समझे । 
पितृसत्तात्मक समाज
शादी के बाद औरतों का अत्याचार झेलना भारत की औरतों के लिए आम
शादी के बाद लड़की का ससुराल ही सब कुछ होता हैं ये कौन ज्ञान देता हैं लड़कियों को ?
कैसा भी है पति तेरा है तुझे वहीं रहना ।
हमनें तो अपना फर्ज पूरा कर दिया।
ज्यादा दिन मायके रहेगी तो लोग क्या बोलीगे हमें, ये कौन बोलता है ?
ससुराल से पीट कर आने वाली औरत को मायके वाले निमंत्रण भेज देते हैं  ले जाओ आपनी अमानत को , घर आने पर उसकी खातिरदारी ऐसे की जाती हैं जैसे पाकिस्तान के खिलाफ  मैच जीत कर आया हो , घर वाले बड़ी नर्मता पूर्व बोलते हैं जमाई जी लड़की से कोई गलती हो जाए तो भूल चूक माफ करना । नदान है अभी ।
शादी उनकी मर्जी से नहीं होती जो परिवार का आदेश  वो उनका
तो मैरिटल रेप का विरोध कैसे कर सकती हैं  जबकि मैरिट रेप अभी तक गैरकानूनी नहीं हुआ है।
लड़की का परिवार लाखों रुपये खर्च कर दे शादी में
लेकिन लड़की की पढ़ाई के लिए पैसे नहीं होते हैं। ऐसे में उसका आर्थिक पक्ष कमजोर होता हैं। तो कैसे ? वो पति से अलग रह सकती हैं ? 
दूसरा की लड़की पढ़ी लिखी होने के बाद भी बाहर की दुनिया से अनजान होती हैं क्योंकि उसे तो हर कदम पर भाई , पिता , पति के साथ चलने की आदत होती हैं।
तीसरी मां की ममता उन्हें पिता से अलग रहने से रोक लेती है।कि मेरे बिना मेरे बच्चों का क्या होगा।उन्हें कोई खाना देगा भी या नहीं ।
मेरा घर बर्बाद हो जाएगा , कानूनी  झमेले में पढ़ना ठीक नहीं । सिंगल पेरेंट्स को
हमारे समाज में कौन अपनाता हैं ?
इस संसार में औरत जन्म लेती हैं तभी से उसमें सरवाइवल इंस्टिंक्ट पुरुष से कई गुना ज्यादा होता हैं यह विज्ञान व्दारा भी सिध्द हो चुका है। नारी शिशु का फेफड़ा या ह्दय नर शिशु से ज्यादा शक्तिशाली हैं।
मुझे सिमोन द बोउवार कहती हैं कि
औरत पैदा नहीं होती  बना दी जाती हैं।
मेरे एक मित्र ने बोला था कि लर्निग जरूरी है
जबाव - औरतों की जिंदगी में लर्निग तो रोज चलती हैं जरूरत है तो किताबों के ज्ञान की जो इस पितृसत्तात्मक समाज को समझने में मदद करे । समाज से लड़ कर आगे बढ़ सके ।
आप पढ़ोगे नहीं तो लिखोगें कैसे ?
सुधीश पचौरी -  लिंग भेद मर्द समाज ने दिया है शारिरिक भेद  हैं     प्राकृतिक भेद बना रह सकता हैं लेकिन समाज भेद नहीं ।
प्रिया गोस्वामी।


(मेरी दोस्त की पोस्ट )

ये जो कुछ लड़कियां चिल्लाकर चिल्लाकर कहती हैं कि 'we are equal to boys' वो ज़रा ये बताएं कि...
(1) वो सिलेंडर को 3 मंजिला बिना हांफे चढ़ाकर ला सकती हैं?
(2)वो रात को 2 बजे घर से निकलकर सुरक्षित घर वापस आ सकती हैं?
(3) क्या वो बिना 'बचाओ बचाओ' कहे खुद की मदद कर सकती हैं?
(4) क्या आप बिना किसी का इंतज़ार किये गुंडों से निपट सकती हैं?
अरे आप तो केवल अपनी जुबान की धार चला सकती हैं, जब खुद की सहायता करनी होती है, तब आप इतनी बेबस हो जाती हैं कि बस ये सोच बैठती हैं कि जो होगा देखा जायेगा, कोई आपको छेड़ दे तो डरी सहमी सी चुप्पी साधे सीधे रास्ते घर चली आती हैं, कोई रोड साइड रोमियो अगर आपको धमका दे तो आप अपना रास्ता बदल लेती हैं, आपके अंदर तो इतनी हिम्मत भी नहीं होती की गलत को गलत कह सकें, आप तो गलत में भी सही ढूंढने में लगी रहती हैं, आप शादी के बाद अत्याचार झेल सकती हैं, मेरिटल रेप झेल सकती हैं, लेकिन अपने पति से अलग होकर जीने के बारे में नहीं सोच सकतीं, और फिर आप अपनी लंबी जुबान से कहती हैं कि 'we are equal to boys'

मेरा स्त्रियों से ये प्रश्न है कि आपको नहीं लगता है कि इस बारे में भी आपको थोड़ा ध्यान देने की ज़रूरत है?

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