महाभारत में स्त्री विमर्श , और आज की स्त्री के मध्य सम्बंध
महाभारत में द्रौपदी का चीर हरण
हमारे इतिहास की परिस्थितियों जो आज भी एक जैसी , यहां आज भी पितृसत्ता का वर्चस्व है जो पहले भी था ।
इस का उदाहरण द्रौपदी के चीर हरण की परिस्थितियों से लगाया जा सकता है
कि जब स्त्री पर सकंट आता है तो सारा पितृसत्तामक समाज मात्र एक दर्शक बन कर रह जाता है महाभारत का एक दृश्य ।
जब युधिष्ठिर ने जुआ खेलते समय पाचों भाइयों को एक के बाद एक हार जाने के बाद , फिर स्वयं को और अंत में उनकी पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगा देता हैं और उसे भी हार जाते हैं
इससें कौरवों में ख़ुशी की लहर दौड़ जाती हैं द्रौपदी को सभा भवन में बुलाने के लिए एक दूत भेजा जाता है वह आने को मना कर देती है और दूत को कहती है कि वह गुरुजनों से पूछ कर आए कि उसे भविष्य में क्या करना चाहिए ?
परन्तु दुर्योधन और उसके समर्थक जो द्रौपदी को अपमानित करना चाहते हैं इस बात पर जोर देते हैं कि उसे सभा में लाया जाए यह काम तो दू:शासन को सौंपा गया है और वह द्रौपदी की कोई बात सुनने को तैयार नहीं। बालों से खींचता हुआ सभागार में ले आता है। क्रोधित द्रौपदी दु :शासन को इस अपमान के लिए श्राप देती है और यही श्राप आगे चलकर युद्ध का कारण बनता है
द्रौपदी की चिंता यहां केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि उसका सरोकार धृतराष्ट्र भीम विदुर और द्रोणाचार्य से है जिन्हें उसकी सभा में उपस्थिति से लज्जित होना पड़ेगा ।
परिस्थितियों को अपने विपरीत पाते हुए द्रौपदी सभा प्रत्यक्ष सामना करती है वह अपने नैतिक तर्क और विश्लेषणात्मक चिंता दिखाते हुए पूछती है कि क्या युधिष्ठिर ने स्वयं को हारने के बाद उसे दांव पर लगाया गया था , अथवा पहले । यह पूछ कर वह यह जानना चाहती है कि क्या दास बनने के बाद युधिष्ठिर का उस पर कोई नैतिक अधिकार रह जाता है अथवा नहीं ? लेकिन जो वीर पुरुष वहां बैठे हैं उनमें से कोई भी उसे उत्तर नहीं देता ।
गुरुजनों की चुप्पी इस बात का संकेत है कि उन्होंने स्थिति को स्वीकार कर लिया है और वह उसे सही मानते हैं यह सब धर्म की व्याख्या के अनुकूल है । वह अकेला अपने बड़े भाई के विरुद्ध अपनी आवाज क्यों उठाय ?
एक विवाह प्रथा के आधार पर कर्ण एक दलील और देता है - द्रौपदी जो कि पांच पतियों से ब्याही है , किसी वेश्या से कम नहीं है और इसलिए उसके सम्मान और प्रतिष्ठा पर विवाद अर्थहीन है।
जैसे ही चीर हरण आरम्भ होता है, द्रौपदी अपनी आंखे बहार की दुनिया से बन्द कर श्रीकृष्ण से पार्थना करती है और अपने तन पर कपड़े का टुकड़ा जो उसने लपेट रखा था , कई अलग तरीकों और ढंग से बढ़ता चला जाता है जंहा शब्द और नैतिक तर्को को बहरे कानों ने सुना - अनसुना कर दिया , वहां एक चमत्कार ने अंत में सन्तुलन स्थापित किया । इस चमत्कार को देखते हुए गुरूजनों को द्रौपदी प्रशनों पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया और उनका उत्तर देना पड़ा ।
विदुर प्रशन का उत्तर मांगते है और कहते हैं कि । स्थिति पर निणर्य के आशय के आधार पर लेना चाहिए , करने वाले का उदेशय क्या है ? जो नाराजगी के भय से आगे नहीं आते है और चुप रहते हैं वे भी दोषी हैं। वह व्यक्ति जो ऐसी घटना की अध्यक्षता करता है, दोष का आधा भाग उसका है, करने वाले का एक चौथाई और देखने वालों का एक चौथाई । विदुर की टिप्पणी का वहां बैठे हुए बुजुर्गो व्दारा कोई उत्तर नही मिलता । बीच में आदेश दिया जाता है कि द्रौपदी को आंत: पुर में भेज दिया जाए ।
संकोच से कांपती , द्रौपदी अब एक प्रशन निजी आधार पर उठाती है , पहले वह इस विचार को चुनोती देती है कि पति पत्नी की रक्षा करते हैं फिर वह सम्बन्धों के उन नियमों का जिससे उसे पुत्र वधु के अधिकार प्राप्त होते हैं और इसके बाद , राजधर्म की धारणा और राजा की भूमिका और कर्तव्यों पर प्रशन चिन्ह लगाती है। कौरवों ने सनातन धर्म के आधार पर ही आघात किया है। युधिष्ठिर की पत्नी होने के नाते वह सभा के आदेशों का पालन करेगी , परन्तु वह चाहती है कि एक स्पष्ट उत्तर उसे दिया जाए कि क्या वह जुए में जीती जा चुकी है अथवा नहीं ।
एक लम्बा विवाद होता है, व्यापक अव्यवस्था को देख कर विदुर निर्णय देते हैं द्धेष की भावना से जुआ खेलना ही गलत कार्य था , द्रौपदी को सभा में बुलाकर अंत पुर की परवित्रता को भंग किया गया है और युधिष्ठिर को द्रौपदी को दांव पर लगाने का अधिकार नहीं था , क्योंकि वह स्वयं को पहले ही हार चूका था , और धृतराष्ट् दुयोर्धन को दोषी घोषित करता है, और द्रौपदी को वर मांगने के लिए कहता है
वह युधिष्ठिर की रिहाई की मांग करती है जब उसे और वर मांगने के लिए कहा जाता है तो वह अपने अन्य चार पतियों को छोड़ देने की मांग करती है, पुरे सम्मान प्रतिष्ठा और सैनिक सज्जा के साथ। एक तीसरा वर भी दिया जाता है , परन्तु वह यह कह कर लोभ किसी को शोभा नहीं देता , अस्वीकार कर देती है। द्रौपदी का व्यवहार कर्ण को उसका प्रशंसक बना देता है
सभी बुजुर्ग अपने कर्तव्य और स्त्रियों की रक्षा करने के दायित्व का उल्लंघन करते है और अपने धर्म और कर्तव्य पालन में पराजित हो जाते हैं । हजारों वर्ष पहले लिखी गई महाभारत में हमें एक स्त्री का विरोध देखने को मिलता है, जिसने सारी परम्पराओं को चुनोती दी । वह स्वयं अपने लिए और शरीर के बारे में सोचने के अपने अधिकारों को स्थापित करती है।
पितृसत्तात्मक दाचें में पली - बढ़ी स्त्रियां अपने परिवेश की बन्दी - बन जाती हैं। लेकिन द्रौपदी ने एक कठिन सयोंजन प्रस्ततु किया - आज्ञा का पालन करना परंतु आत्मा समर्पण नहीं पत्नी के रूप में भी उसके कर्तव्य केवल उसके शरीर तक सीमित नहीं है वह अपने पतियों की हमराज भरोसेमंद साथी और अपने पतियों के बराबर है। अपने पिता के परिवार में भी उसे सम्मान दिया जाता है और आवश्यकता पड़ने पर वह उन पर विश्वास कर सकती है - और सामान्यत : स्त्रियों को ऐसा करने से रोका जाता है ।,
प्रिया गोस्वामी, नई दिल्ली
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